मुझे दी गई आग कि मैं तम को जला सकूं ,
गीत मिले इसलिए कि घायल जग की पीड़ा गा सकूं,
मेरे दर्दीले गीतों को न पहनाओ हथकडी,
मेरा दर्द नहीं मेरा हैं, सबका हाहाकार हैं,
कोई नहीं पराया, मेरा घर सारा संसार हैं।
- गोपालदास नीरज (कोई नहीं पराया, प्राण गीत)
मैं कौन हूँ? दाल रोटी की दौड़ ने, जिससे देश छुडा दिया। पाँव के भवर ने अपनी माटी से इतना दूर कर दिया कि जिस माटी की सुरभि लाकर जीता हूँ उसने ही मेरा परिचय 'अप्रवासी' कर दिया। जीवन में मिले बंजारेपन ने, सोच को भी बंजारा बना दिया, और देश दुनिया कि दौड़ ने ह्रदय को संवेदनशील...हर मुस्कान की गरमजोशी की आभा ने और हर चेहरे की सिलवट में छिपे दर्द की अनुभूति ने इस संवेदनशील ह्रदय को अभिव्यक्ति दी। यही अभिव्यक्ति कभी काव्य बनकर छलकी तो कभी गद्य का उदघोष बनकर गूंजी । और परिचय बनाने के लिए अभी तो उम्र पड़ी हैं...नीरज के ही शब्दों में -
कहते कहते थके कल्प, युग, वर्ष, मॉस, दिन ,
पर जीवन की राम-कहानी अभी शेष हैं।